“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा

बादरायण व्यास विरचित “ब्रह्मसूत्र

बादरायण का वक्तव्य ‘’अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’’ सर्वाधिक सशक्त वक्तव्य है, जो आज तक किसी ने नहीं दिया है। अब परम की खोज शुरू होती है। यह विश्‍व की सर्वाधिक रहस्यमय किताब है। आज तक जो किताबें लिखी गई उनमें सर्वाधिक महत्‍वूर्ण। मैं उसे विचित्र कहता हूं क्योंकि बादरायण संसार में बहुत प्रसिद्ध नहीं है। यद्यपि भारत में वे एकमात्र रहस्यदर्शी है जिनकी किताब पर हजारों टीकाएं लिखी गई है। उनका प्रत्‍येक वक्तव्य इतना अर्थ गर्भित है कह उस पर हजारों प्रकार से टीका लिखी जा सकती है। फिर भी लगता है कि कुछ पीछे शेष रह गया जो चुक नहीं सकता। यह एकमात्र किताब है जिस पर टीकाएं, और फिर उन टीकाओं पर टीकाएं लिखी गई है।

हजारों साल तक इस देश के प्रतिभाशाली लोग बादरायण से जुड़े रहे है। और फिर भी लोग उनके नाम से परिचित नहीं है। उसका यह कारण हो सकता है, कि उनके व्यक्तित्व जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। सिवाय इस किताब के। वह ऐतिहासिक व्यक्ति था या नहीं, कहना मुश्‍किल है। लेकिन एक बात पक्‍की है, जिसने भी यह किताब लिखी, उसका नाम जो भी हो, वह व्यक्ति निश्‍चित ही बहुत बड़ा रहस्यदर्शी था। फिर बादरायण कहने में क्या हर्ज है? पूरब के सभी महान सूत्र एक शब्द से शुरू होते है। अथातो याने अब। ब्रह्मसूत्र, पूरब के महानतम सूत्र, इस वचन से शुरू होते है। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। अब परमात्मा की खोज शुरू होती है। ‘’अब का क्या अर्थ हुआ? सिर्फ इस एक शब्द पर हजारों टिकाएं लिखी जा चुकी है।

‘’अब क्यों? क्या केवल परमात्मा की खोज लिखना काफी नहीं था? लेकिन अब.. ? उसका क्या अर्थ। मेरी अपनी व्याख्या है कि जब तक तुम ‘’अब’’ याने इस क्षण का अनुभव नहीं करते, तब तक परमात्मा की खोज शुरू नहीं कर सकते। वस्‍तुत: इस क्षण में होना ही परमात्मा की खोज शुरू करना है। मन सदा अतीत में होता है या भविष्य में होता है। अतीत अब है नहीं, और भविष्य अभी आया नहीं। और परमात्मा सदा है। परमात्मा सदा इस क्षण है। इस क्षण की खोज ही वास्तव के परमात्मा की खोज है। लेकिन यह सुत्र इतना संक्षिप्त है कि वह ‘’अब’’ की कोई व्याख्या नहीं करता। ‘’अब…’’ और समाप्त।

सूत्र का अर्थ छोटा सा बीज है। जिसमें हजारों फूल छिपे है। लेकिन उसके लिए तुम्‍हें बोना पड़ेगा। उगाना पड़ेगा, उनकी रक्षा करनी होगा। और वसंत की प्रतीक्षा करनी होगी। जैसे-जैसे तुम विकसित होते हो, पहले सूत्रमयता आती है। तुम्‍हारे वक्तव्य सूत्र बन जाते है, उसके बाद आता है परम मौन। एक शब्द भी कहना ऐसा लगता है जैसे कुछ गलत कर रहे हो। अब बहुत अर्थपूर्ण है। तुम भ्रांतियों का जीवन जी चुके हो, अब परमात्मा की खोज शुरू होती है। तुमने भौतिक सुख-दुःख, पीड़ा, समस्याएं, झेल लीं, तुम कई दिशाओं में भटक चुके हो और तुमने कुछ नहीं पाया, अब परमात्मा की खोज शुरू करो। तुम अहंकार का जीवन जी लिए। स्वार्थ का जीवन जी लिया। अब तुम थक हार गये हो। अब तुम अंत पर पहुंच चूके हो, और अब जीने के लिए कोई जमीन नहीं बची।

अब परमात्मा की खोज शुरू करो। तुमने पैसा जोड़ लिया, पद पा लिया….शोहरत पा ली, लेकिन किसी से तृप्ति नहीं हुई….अब परमात्मा की खोज शुरू करो। ‘’अब’’ बड़ा अर्थ पूर्ण है। इसका यह अर्थ नहीं है कि पुस्तक बीच में ही शुरू हुई। वह कहती है कि परमात्मा की खोज बीच में शुरू होती है।

यह बिलकुल प्रांरभ से शुरू नहीं हो सकती। वह असंभव है। बच्चा परमात्मा की खोज शुरू नहीं कर सकता। उसे पहले जीवन की खोज करनी है। उसे भटकना पड़ेगा। मनुष्य पैदा हुआ हर बच्चे को परमात्मा को खोना पड़ेगा। दूर जाना पड़ेगा। तभी…..जब अँधेरा असहनीय हो जाता है। दुःख बहुत बोझिल और दिल डूबने लगता है। तभी आदमी कुछ बिलकुल अलग करने की सोचता है। जो उसने आज तक कभी नहीं किया—‘’अब ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है।‘’
ब्रह्मसूत्र और आधुनिक मनुष्य के बीच हजारों वर्ष का फासला है। यह फासला सिर्फ समय का नहीं है, मानसिकता का भी है। मनुष्य के अंतरतम पर व्यक्तित्व की इतनी पर्तें चढ़ गई है कि उसका मूल चेहरा खो गया है। अगर कहा जाये कि ब्रह्मसूत्र मुल चेहरे की खोज है। तो गलत नहीं होगा। भारतीय अध्‍यात्‍म के आकाश में कुछ दैदीप्‍यमान सितारे है, उनमें से एक अनोखा सितारा है: बादरायण व्यास विरचित ब्रह्मसूत्र। ब्रह्मसूत्रों का प्रत्‍येक पहलू उतना ही रहस्यपूर्ण है,जितना कि स्‍वयं ब्रह्म। ब्रह्म एक ऐसी अवधारणा है जिसका भारतीय दर्शन में सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। हो सकता है ‘’ब्रह्म’’ कुछ ऋषियों की अनुभूति रही हो, लेकिन अधिकांश लोगों के लिए तो यह महज एक शब्द है, जो उनकी सामान्‍य जिंदगी में जरा भी उपयोगी नहीं है। ब्रह्मसूत्र सदा ही अंजुरी भर विद्वानों की बपौती रही है। बल्‍कि यूं कहें कि ब्रह्मसूत्रों का अध्‍ययन किये बगैर उनकी विद्वता का प्रमाण पत्र नहीं मिलता था। इन गहन गंभीर सूत्रों के रचेता ने बादरायण व्यास। इनके समय या स्‍थान का कोई ठोस सबूत नहीं है। उस संबंध में जो भी सिद्धांत है वे अनुमान मात्र है। जो भी हो, प्राचीन भारत को ग्रंथकर्ता के नाम से कभी कोई मतलब नहीं रहा। इसलिए लेखक का नाम गौण ही रहा है।

आध्यात्मिक ग्रंथ उन ऊंचाइयों पर सर्जित होते है जहां नाम, रूप, समय सब खो जाते है। लेखक के भीतर खिला हुआ शून्‍य, ज्ञान के प्रकटन का सिर्फ दर्पण बनता है। भारतीय मनस में ब्रह्मसूत्रों की अपनी खास जगह रही है। वे न तो वेद में शुमार है, न उपनिषदों में। वे वेद अर्थात ज्ञान का अंत है। वे केवल सूत्र है जिनमें सृष्‍टि का पूरा ज्ञान समया हुआ है। वे ज्ञान के अणुबम है। दो या तीन शब्‍दों में बहुत विराट बात सहजता से कह देना भारतीय मनीषियों कि विशेषता है। इसमें ब्रह्मसूत्र अद्वितीय हे। कभी-कभी केवल दो शब्द और अव्‍यय के साथ वे बात कह देते है। उन्‍हें समझने में पूरी उम्र बीत जाती है। फिर भी कुछ पल्‍ले नहीं पड़ेगा।

ब्रह्मसूत्र वैसे लोकप्रिय नहीं है जैसे कि पंतजलि के योग सूत्र, या नारद और शांडिल्‍य के भक्‍ति सूत्र। क्योंकि उन सूत्रों में विधियां बताई गई है। करने के लिए कुछ क्रियाएं है। साधारण आदमी को कृत्‍य में रस है: कैसे? ज्ञान की कोरी चर्चा पंडितों में लोकप्रिय हो सकती है। क्योंकि उन्‍हें करना कुछ नहीं है। सिर्फ बोलना है। ब्रह्म सूत्रों में कि गई चर्चा भले ही जन साधारण की समझ से परे हो, लेकिन उनकी उतुंगता मनुष्य के सामूहिक अवचेतन में पीछे कहीं पर अटल खड़ी हुई है। वह समय के लंबे प्रवाह में निरंतर टीकाकारों को आकर्षित करती रही है।

ब्रह्मसूत्रों पर बुद्ध पुरूषों ने जितनी टीकाएं लिखी है उतनी किसी भी शास्‍त्र पर नहीं लिखी गई। आदि शंकराचार्य, रामनुजाचार्य, बल्‍लभाचार्य, निम्‍बार्क, वाचस्‍पति मिश्र, कितने ही जाग्रत पुरूषों ने ब्रह्म सूत्रों की ऊँचाई और गहराई नापने की कोशिश की है। यह घटना ठीक ऐसी है जैसे माऊंट एवेरस्‍ट पर लोग लगातार चढ़ने की कोशिश करते है। क्यों? क्योंकि उसकी अजेयता एक चुनौती बनती है। एडमंड हिलैरी ने कहा, क्योंकि वह वहां है। ब्रह्म सूत्रों की टीका लिखने के लिए भी यह कारण पर्याप्‍त है: क्योंकि वह है—अजेय, अमेय, अलंघ्‍य।

ब्रह्मसूत्रों को वेदांत दर्शन का अंग बताया जाता है। इसमें ब्रह्म के स्‍वरूप को सांगोपांग निरूपण है। इन सूत्रों की विशेषता यह है कि प्राय: सभी संप्रदायों के आचार्यों ने इनकी व्याख्या अपने मत के अनुसार की है। यह एक आश्‍चर्य है कि परस्‍पर विरोधी दर्शनों को अपने सिद्धांत का प्रतिबिंब इसमें दिखाई दिया। कितना विराट होगा इसका आशय जो सब विरोधों को अपने आलिंगन में लेकिर भी शेष रहता है। सूत्रकार ने ब्रह्मसूत्रों को चार अध्‍यायों और सोलह पादों में बांटा है।

पहला है, समन्‍वय अध्याय। इसमें व्यास मुनि विषय वस्‍तु अर्थात ब्रह्म को, अनेक उदाहरण और तर्क देकर स्थापित करते है।

दूसरा है, अविरोध अध्याय। इस अध्याय में सब प्रकार के विरोधाभासों का निराकरण किया गया।

तीसरा अध्याय परब्रह्म की प्राप्ति के लिए ब्रह्मविद्या और उपसना पंथों की चर्चा करता है। और ____

चौथे अध्याय में इन उपायों द्वारा मिलने वाले फल का वर्णन है। इसलिए उसे फलाध्याय कहते है। जैसी कि सनातन भारतीय शास्‍त्रों की शैली थी, लेखक खूद का सिद्धांत सिद्ध करने से पूर्व सभी मत-मतांतरों की खबर लेता था।

व्यास मुनि भी वहीं शैली अपनाते है। यहां पर न जाने कितने प्रचलित मतों को उल्लेख कर उनका खंडन और स्‍वयं का मंडन कर अबाध बहती हुई सलिला की भांति मस्‍ती से आगे बढ़ते है।

भारत में आध्यात्मिक विचार प्रवाह अनादि काल से बहते हुए चले आ रहे है। वे किसी एक व्यक्ति से प्रगट नहीं हुए। वे तो आकाशस्‍थ रिकार्ड में थे ही, व्यक्तियों ने उसे सिर्फ वाणी दी। परंपरा का निबाह करते हुए बादरायण व्यास ने भी प्रधान कारणवाद, अणुवाद, विज्ञानवाद, आदि सिद्धांतों की समीक्षा की। लेकिन उनके जनक किसी आचार्य का उल्‍लेख नहीं किया है। क्योंकि ज्ञान ने कभी पैदा हुआ न कभी मृत होगा। ज्ञान की इस अनादि-अनंतता की प्रतिध्‍वनि ‘’ब्रह्मसूत्र’’ जैसे ग्रंथों में सुनी जा सकती है। ब्रह्मसूत्र और आधुनिक मनुष्य के बीच हजारों वर्ष का फासला है। यह फासला सिर्फ सत्य का नहीं है, मानसिकता का भी है, मनुष्य के अंतरतम पर व्यक्तित्व की इतनी पर्तें चढ़ गई है कि उसका मूल चेहरा ही खो गया है। अगर कहां जाये की ब्रह्मसूत्र मूल चेहरे की खोज है। तो गलत न होगा।

ब्रह्म की पहचान भले ही खो गई हो ब्रह्म तो वही है; उसका नाम भर बदल गया है। वैज्ञानिक हवल ने जब ‘’expanded universe’’ फैलते हुए ब्रह्मांड का अविष्‍कार किया तो वह ब्रह्म का ही अविष्कार था। उसे हम बीसवीं सदी का ब्रह्म कह सकते है।

ब्रह्म का मूल अर्थ है: ‘’अपबृंहणात् ब्रह्म।‘’ जो फैलता जाता है उसे ब्रह्म कहते है

ऐसा नहीं है कि वि ब्रह्माण्ड प्राचीन समय में ही फैल रहा था, वह तो आज भी फैल रहा है। वैज्ञानिकों ने धर्म की और पीठ कर ली और पदार्थ में उतर गये। लेकिन जैसे ही पदार्थ की गहराई में पहुंचे, वहां पुन: प्रवेश कर गया है—(विज्ञान का हाथ थामकर, अलग नाम से अगल चेहरा लेकर।)